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रुठी रानी मुंशी प्रेमचंद


शादी

दिन ढल गया। बाजार में छिड़काव हो गया। लोग बारात देखने के लिए घरों से उमड़े चले आते हैं। ज्योतिषी ने दरबार में जाकर राव से कहा– ‘‘अब अगवानी करने का समय पास आ गया है। अब सवारी की तैयारी का हुक्म दीजिए।’’

रावल– ‘‘बहुत अच्छा। बारात वालों को भी इसकी खबर कर दो।’’

ज्योतिषी– ‘‘हाँ, खूब याद आया, एक बात मुझे मारवाड़ के ज्योतिषियों से पूछनी है।’’

रावल– ‘‘क्या?’’

ज्योतिषी– ‘‘जन्मपत्री से तो नहीं, पर बोलते नाम से राव जी को आज चौथा चन्द्रमा और आठवां सूरज है।’’

रावल– ‘‘तो इससे क्या, मुहूर्त तो आपने जन्मपत्री से ही निकाला है।’’

ज्योतिषी– ‘‘महाराज पुकारने के नाम से भी ग्रह देखे जाते हैं। चौथा चन्द्रमा और आठवां सूरज अशगुन होता है। कोई ग्रह बारहवां नहीं है, तो...’’

रावल (जी में) क्या अच्छा होता जो कोई बारहवां ग्रह भी होता ताकि तीनों असगुन एक जगह हो जाते। (प्रकट) मारवाड़ बड़ा राज्य है। वहां ज्योतिषियों की कमी नहीं है। उन्होंने जरूर सब बातों को विचार लिया होगा। आप कुछ न कहिएगा नहीं तो उन्हें खामखाह शक हो जाएगा।

ज्योतिषी– ‘‘उन्हें सचेत कर देना मेरा धर्म है। मैं आपके खानदान का हित चाहने वाला हूं। मैं अभी जाकर उनसे कहता हूं कि विपत्ति को काटने की कोई युक्ति कीजिए।’’

रावल– क्या युक्ति हो सकती है?’’

ज्योतिषी– ‘‘यही दान-पुण्य आदि।’’

रावल– ‘‘यह सब मैं अपनी तरफ से करा दूंगा। उनसे कहने की क्या जरूरत है।’’

ज्योतिषी– ‘‘नहीं, यह दान उन्हीं की तरफ से होना चाहिए।’’

रावल– ‘‘क्या मेरी तरफ से होने में कुछ बुराई है?’’

ज्योतिषी– ‘‘अपनी तरफ से तो तब दान कराया जाता जब बाई के ग्रह खराब होते।’’

रावल– ‘‘आज बाई जी का ग्रह कैसा है?’’

ज्योतिषी– ‘‘बहुत अच्छा, बहुत शुभ। फिर औरत के ग्रहों का अच्छा या बुरा होना अधिकतर उसके पति के ग्रहों पर आधारित होता है। इसलिए बाई जी का भी वही ग्रह समझना चाहिए जो राव जी का है।’’

रावल– ‘‘अच्छा तो बारात में हो आइए। देर न कीजिएगा, यहां भी काम है।’’

ज्योतिषी– (चुटकी बजाकर) ‘‘गया और आया।’’

रावल से हुकुम पाकर ज्योतिषी जी खुश-खुश वहां से चले। राव मालदेवजी को खबर हुई कि ज्योतिषी राघो जी आते हैं। राव जी ने कहा– ‘‘उनका बड़े सम्मान से स्वागत करो। वे बड़े नामी ज्योतिषी हैं। वे क्या, उनके बेटे चण्डो भी ज्योतिषी विद्या के बड़े पण्डित हैं।’’

चोबदार और ड्योढ़ीदार दौड़े और ज्योतिषी जी को हाथों हाथ ले आए। ज्योतिषीजी आशीर्वाद देकर बैठ गए। राव जी ने कुशल-मंगल पूछकर कहा आपने कैसे आने का कष्ट किया?

ज्योतिषी– (इधर-उधर देखकर) ‘‘कुछ साइत विचारनी है।’’

यह सुनते ही लोग हट गए। ज्योतिषी जी राव साहब से दो-दो बातें कर चल दिए। राव जी को बड़ी चिन्ता हुई, फौरन सरदारों को बुलाकर सलाह-मशविरा किया कि ऐसी हालत में क्या करना चाहिए।

इतने में नक्कारों की आवाज आयी, चौतरफा शोर मचने लगा कि रावल जी की सवारी आई। तब राव जी भी सिर पर मौर और माथे पर सेहरा बांधकर अपने डेरे से बाहर निकले और घोड़े की पूजा करके उस पर सवार हुए। बारात चढ़ी, कुछ दूर जाकर सब जुलूस थम गया। फर्श-फरूश तकिया-मसनद लगा दिए गए। रावल और राव दोनों अपने-अपने घोड़ों से उतरे और गले मिले। फिर निशान का हाथी आगे की तरफ बढ़ा और उसके साथ दोनों महाराजे किले की तरफ चले। दरवाजे पर पहुँचकर रावल जी तो अन्दर तशरीफ ले गए और राव जी तोरन बांधने की रसम अदा करके पीछे पहुंचे। रनिवास में फिर दोनों मिलकर एक साथ मसनद पर बैठे।

राजमहल में शादी की तैयारी हो गई। नाजिर राव जी को बुलाने आया। राव जी के साथ रावल जी भी उठे मगर राव के सरदारों ने उन्हें रोका कि आप हमें अकेला छोड़कर कहां जा रहे हैं। रावल ने झांसा देकर कहा कि यहां से चला जाऊं, मगर कौन जाने देता है। राव के सरदारों ने उनका हाथ पकड़कर बीच में बिठा लिया। अब तो लेने के देने पड़ गए। जाते थे राव को मारने, अब अपनी ही जान के लाले पड़ गए। उनके सरदार भी सब सिट्टी-पिट्टी भूल गए। इधर राव जी बेखटके धीरे से रनिवास में दाखिल हो गए।

जनानी ड्योढ़ी में पहुंचते ही उम्मादे की मां ने राव जी की आरती उतारी, उनके माथे पर दही का टीका लगाया और जी में कहा कि ऐसे ही मेरा कलेजा ठंडा रहे। इसके बाद नाक खींचकर (जैसे वर की रवाना होने से पहले उसे दूध पिलाती है, वैसे ही सास उसके माथे पर दही लगाती है, यानि उसे अपनी लड़की का पति मान लेती है। कहावत है, दही की बात सही) अपना दुपट्टा उनके गले में डालकर उन्हें चंवरी में ले आयीं।

ब्राह्मण बड़े मधुर स्वर में वेद-मंत्र पढ़ने लगे। आग में आहुति पड़ी। हवन होने लगा। राव जी का हाथ उमादे के हाथ से मिलाया गया। उमादे आगे हुई और राव जी पीछे-पीछे चले। तीन बार हवन-कुण्ड की परिक्रमा की। नव औरतें यह गीत गाने लगीं—

पहले फेरे बाई काकारी भतीजी
दूजे फेरे बाई मामारी भतीजी
तीजे फेरे बाई बुआरी भतीजी


गीत का मतलब यह है कि बाप लकड़ी उस वक्त दे चुकता है जब दामाद से गले मिलता है, मां उस वक्त जब वह दामाद के माथे पर दही का टीका लगाती है। उसके बाद वेद और शास्त्र के अनुसार लड़की का विवाह होता है। उस वक्त उस पर चाचा, मामा, और बुआ का थोड़ा-बहुत हक रह जाता है। अगर चाचा को कुछ कहना हो या आपत्ति करनी हो तो पहले फेरे तक कर सकता है, मामा दूसरे फेरे तक और बुआ तीसरे फेरे तक। चौथे फेरे में लड़की पराई हो जाती है, फिर किसी का उस पर कोई हक बाकी नहीं रह जाता। इसीलिए चौथे फेरे के पहले ही दूल्हा-दुल्हन के आगे आ जाता है। कि जैसे उस वक्त से वह उसका पति और स्वामी माना जाता है। इस गीत में यह भी प्रकट होता है कि बुआ का हक लड़की पर बहुत माना गया है।

चौथे फेरे में राव जी आगे हो गए और उमादे उनके पीछे चलने लगी। तब औरतों ने यह पिछला गाकर अपना गीत पूरा किया-

चौथे फेरे बाई हुई रे पराई।


गीत सुनते ही मां और बहनों के दिल भर आए। आंखों से आंसू टपकने लगे कि अब प्यारी उमादे पराई हो गई। इस तरह यह शादी बैशाख सुदी तीन संवत् १५९३ की रात को अच्छी तरह सम्पन्न हुई।

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